#Kukrukoo_Sahitya : इश्क का मुकम्मल न होना भी इश्क होता है।
मोनिका चौहान
“कब आओगे, आनंद? मैं ज्यादा समय तक इंतजार नहीं कर सकती। मां-बाबा मेरे लिए रिश्ते तलाश रहे हैं। तुम बस जल्दी आ जाओ। तुम्हारी वीणा।”
संदूक में मिले इस पोस्टकार्ड को पढ़कर सुहाना के मन में कई सवाल खड़े हो गए थे। आखिर किसका था ये पोस्टकार्ड और इस संदूक में क्या कर रहा है? अपने मन में उठ रहे सवालों को दरकिनार करते हुए सुहाना चेतना में लौटी, तो उसने फिर संदूक को खगालना शुरू किया। उसमें एक डायरी उसे नज़र आई। सुहाना ने जब वो डायरी खोली, तो वो हैरान थी।
इस डायरी में कई पोस्टकार्ड चिपके हुए थे। हर पोस्टकार्ड में एक संदेश था। उसने डायरी को अपने बैग में डाला और संदूक को बंद करने के बाद स्टोररूम से बाहर निकल गई। सुहाना ने स्टोररूम से बाहर निकलकर मां को आवाज़ लगाई। “मां, मैं पूजा से मिलने जा रही हूं। शाम तक लौट आऊंगी।” मां ने कहा, “ज्यादा देर न करना बेटा।” “ठीक है, मां।” इतना कहते ही सुहाना घर से निकल गई। थोड़ी देर बाद सुहाना अपने पसंदीदा कैफे में पहुंच गई। यहां वो अक्सर आया करती थी। कभी अपनी सहेलियों के साथ और कभी अकेले समय बिताने। उसने कोने की एक कुर्सी-टेबल पकड़ी और उस पर बैठ गई। गर्मा-गरम कॉफी का ऑर्डर देकर उसने अपने बैग से उस डायरी को निकाला और उसे पढ़ने लगी।
पहले पोस्टकार्ड को पढ़ते ही सुहाना के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई। उसमें लिखा था, “प्रिय आनंद, वैसे बड़ी शर्म आ रही है, मुझे तुम्हें पहली बार खत लिखते हुए और उसमें प्रिय लिखते हुए। अब से नहीं लिखूंगी। सिर्फ आनंद लिखूंगी। बुरा मत मानना। तुम जानते हो, मैं बहुत छुपते-छिपाते तुम्हें खत लिख रही हूं। किसी को पता लगा, तो कयामत आ जाएगी। सुनो, जल्दी आना। तुम्हारा इंतज़ार करेंगी, तुम्हारी वीणा।”
सुहाना ने ये पोस्टकार्ड पढ़ा ही था कि उसके सामने उसकी स्पेशल ऑर्डर वाली गर्मा-गरम कॉफी हाज़िर थी। सुहाना ने उस कॉफी की चुस्की लेने के बाद, फिर अपनी आंखें उस डायरी में गढ़ा ली। वो समझ नहीं पा रही थी कि दादा जी के संदूक में ये खत किसके थे? क्योंकि उसकी दादी का नाम तो कांता था। फिर ये वीणा कौन थी?
दूसरा पोस्टकार्ड पढ़ने के लिए सुहाना फिर अपने ख्यालों से बाहर आई। दूसरा पोस्टकार्ड- “आनंद, तुमने मुझसे एक बार पूछा था न कि मैं तुम बिन कैसा महसूस करती हूं? उस समय तो डर और शर्म के मारे मैं कुछ कह नहीं पाई, लेकिन अपने एहसास इस ख़त के ज़रिए तुम्हें बता रही हूं। आनंद, बिन पानी एक प्यासे की तड़प जो होती है, वो तड़प महसूस करती हूं। तुम बिन सब अधूरा है। अल्फाज़ नहीं हैं मेरे पास ज़्यादा, पर ख़त पर गिरे अश्कों से बिखरी स्याही शायद तुम्हें मेरी तड़प का एहसास दिला दे। तुम्हारी वीणा।
इसके बाद, सुहाना ने एक के बाद एक पोस्टकार्ड को पढ़ना शुरू किया। उसके सिर जैसे भूत सवार हो गया था, उन्हें पढ़ने का। आखिर में वह उस पोस्टकार्ड की कहानी पर पहुंची, जो उसने सबसे पहले पढ़ा था। उसे लगभग दो घंटे हो गए थे, उस कैफे में बैठे और उन पोस्टकार्ड को पढ़ते-पढ़ते उसे एहसास नहीं हुआ कि उसने चार कप कॉफी कब पी ली थी। वो अब बैचेन हो गई थी, क्योंकि उसे जानना था कि इन खतों की वीणा कौन है? पर अपने सवालों के जवाब वो ढूंढे कैसे? दादा जी, तो स्वर्ग सिधार चुके थे। पापा से पूछने की उसकी हिम्मत नहीं थी। मन उदास किए, सुहाना घर वापस चली गई।
रात के एक बजे थे और सुहाना की आंखें नींद से अनजान थी। उसके ज़हन में रह-रह कर वहीं ख्याल आ रहा था। आखिर, कौन थी वो वीणा? वो अपने बिस्तर पर बैठ गई। इसके बाद, उसने पास की टेबल पर रखी डायरी के सबसे आखिरी पोस्टकार्ड को उठाया, जो डायरी में चिपकाया नहीं गया था। ये वहीं, पोस्टकार्ड था, जो उसने संदूक में से सबसे पहले निकाला था। उसने उसमें लिखे पते को ध्यान से पढ़ना शुरू किया। उस पोस्टकार्ड के पते पर लिखे अक्षर धुंधले पड़ गए थे। उसे सिर्फ इतना ही नज़र आया, ‘लैंसडॉन, उत्तराखंड’। बाकी का पता मिट चुका था। पूरा पता वो ढूंढ नहीं सकती थी, क्योंकि बाकी पोस्टकार्ड डायरी में चिपका दिए गए थे। उसने फिर जिस पते पर पोस्टकार्ड भेजे गए, उसे भी देखा। वो सभी अलग-अलग जगह के थे। ऐसे में उसकी एक ही उम्मीद थी। वो थी, उस पते पर जाना, जहां से सारे खत उसके दादा जी के लिए लिखे गए थे। उसने सारी रात ये सोचने में लगा दी कि वो मां को क्या बोलकर उत्तराखंड जाएगी।
सुबह उठकर नाश्ता करने के बाद, उसने मां से कहा, “मां, मुझे कॉलेज के प्रेक्टिकल के लिए रिसर्च करना है। इसके लिए मुझे दो दिनों के लिए उत्तराखंड जाना है। क्या में जा सकती हूं?” सुहाना के मुंह से इस बात को सुनते ही मां ने आंखें ततेरीं। सुहाना जानती थी कि मां कुछ ऐसा ही करेगी और इसीलिए, उसने अपने तरकश का दूसरा तीर निकाला। उसने कहा, “मां, चिंता मत कीजिए। पूजा भी मेरे साथ होगी। हम दोनों एक ही टीम में हैं और हमें एक ही प्रोजेक्ट में काम कर रहे हैं। प्लीज़ मां। जाने दीजिए ना। मामा जी भी, तो वहां हैं। हम उनके घर चले जाएंगे।”
सुहाना के तरकश से निकला दूसरा तीर काम कर गया और मां ने दो दिनों के लिए उत्तराखंड जाने की इजाज़त दे दी। सुहाना ने सारी बात पूजा को पहले ही बता दी थी और एक हफ्ते बाद सुहाना और पूजा उत्तराखंड के लिए निकल गए। सुहाना जानती थी कि उसके पास समय कम है और एक अनजान इंसान को ढूंढना उसके लिए मुश्किल। ऐसे में मामा जी के घर जाकर समय खराब नहीं कर सकती थी। उसने सोचा वो आते वक्त मामा जी से मिल लेगी। इसलिए, वो दिल्ली से सीधा लैंसडॉन के लिए निकल गई। उत्तराखंड की हसीन वादियां, तो उसे हमेशा से पसंद थी। उसका आधा बचपन अपने मामा जी के घर गुज़रा था।
सुहाना कुछ समय बाद, पूजा के साथ लैंसडॉन पहुंच गई। सुबह के उगते सूरज के साथ गर्म चाय का लुफ्त उठाने के बाद उसने अपना खोजी कार्यक्रम शुरू कर दिया। उसने हर जगह वीणा नाम के बारे में पता लगाया, लेकिन उसे कुछ हासिल नहीं हुआ। दो दिन बीत गए, लेकिन सुहाना को कुछ हासिल नहीं हुआ। थक हारकर सुहाना दिल्ली के लिए वापस रवाना हो गई। उसे मामा जी के घर भी जाना था। सुहाना भी अपनी दोस्त पूजा के साथ कोटद्वार में अपने मामा जी के घर के लिए निकल गई। मामा जी के मिल कर अगले दिन वो दिल्ली के लिए रवाना होने वाली बस में बैठने ही वाली थी कि उसे अचानक धक्का लगा और वो नीचे गिर गई। सुहाना की कोहनी में चोट लग गई थी और उसमें से काफी खून भी बह रहा था। ये देखकर पूजा ने उसे डॉक्टर के पास चलने के लिए कहा। दोनों फिर अस्पताल पहुंचे। मरहम पट्टी करवाकर सुहाना रिसेप्शन पर बैठी थी और पूजा कागज़ी कार्यवाही कर रही थी कि अचानक सुहाना की नज़र अस्पताल के बोर्ड पर पड़ी, जिसमें कई डॉक्टरों के नाम लिखे थे। उसमें एक नाम देखकर वो हैरान रह गई। वो नाम था, डॉ. वीणा आनंद।
सुहाना उस नाम को देखकर खड़ी हो गई। उसने एक आखिरी कोशिश करने की सोची। पूजा ने जब सुहाना को देखा, तो उससे बैठने के लिए कहा। सुहाना ने पूजा को वो नाम दिखाया और दोनों सीधा रिसेप्शन पर पहुंचे। सुहाना ने कहा, “जी, ये डॉ. वीणा आनंद कहां मिलेंगी?” रिसेप्शनिस्ट ने दोनों को घूर के देखा और फिर पूछा, “क्या काम है?” उसकी बात सुनकर दोनों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या कहे?
फिर कुछ देर रुककर पूजा बोली, “जी, वो मेरी पहचान वाली हैं। मेरे चाचा जी पहले यहीं काम करते थे। वो उन्हें जानते थे। इसलिए, सोचा उनसे मिल लें। वो कहां मिलेंगी?” रिसेप्शनिस्ट ने कहा, “फर्स्ट फ्लोर पर दूसरा कमरा उनका ही है। चले जाओ।” रिसेप्शनिस्ट के इतना कहते ही सुहाना के मानो पर लग गए हों। वो अपनी कोहनी पर लगी चोट का दर्द भूलकर सीधे भागते हुए उस कमरे में पहुंची। वहां, कोई 70 साल की उम्र-दराज़ औरत बैठी थी, जिसके मुख पर शालीनता और गहरी आंखों में टिमटिमाते काले मोती जैसी आंखें थी। उसे देखकर सुहाना एकटक खड़ी हो गई। उस औरत ने दो लड़कियों को उसके कमरे इस तरह धमकते हुए देखकर अपनी आंखें बड़ी कर ली। वो थोड़ी हैरान सी थी।
अपनी कुर्सी से उठकर उस औरत ने सुहाना के पास आकर दोनों की ओर देखते हुए कहा, “कौन हो तुम? इस तरह कमरे में भागते हुए क्यों आए?” सुहाना एकदम बुत सी बन गई थी। उसने फिर वहीं, सवाल पूछा और इस बार सुहाना ने बिना कुछ कहे एक पोस्टकार्ड उसकी ओर बढ़ा दिया। उस पोस्टकार्ड को देखकर वो औरत अचंभित रह गई। उसने एक नज़र उस पोस्टकार्ड पर डाली और फिर एक नज़र सुहाना को पूरी तरह निहारने के बाद कहा, “कौन हो तुम? ये तुम्हें कहां से मिला?”
सुहाना ने अपनी चेतना में लौटते हुए सवाल के जवाब में एक और सवाल किया, “क्या आप इस पोस्टकार्ड को पहचानती हैं? क्या ये आपने लिखा है?” सुहाना के पूछने पर उस औरत ने हां में सिर हिलाया। फिर सुहाना ने कहा, “मैं आनंद बक्षी की पोती हूं। ” इतना सुनते ही उस औरत की काली मोती जैसी टिमटिमाती आंखों में अचानक एक बूंद छलक आई और वो दो कदम पीछे चलते हुए लड़खड़ाते पास में रखे सोफे पर धम्म से बैठ गई। कुछ देर तक कमरे में सन्नाटा सा फैल गया। फिर उस औरत ने अपने आंसूं पोंछते हुए कहा, “ओह, तो तुम आनंद की पोती हो।” सुहाना ने कहा, “हां! मुझे आपके लिखे पोस्टकार्ड अपने दादा जी के एक संदूक में मिले।” सुहाना की ओर देखते हुए वीणा ने कहा, “क्या? उन्होंने मेरे ख़त संभाल कर रखे थे?” सुहाना ने हां में सिर हिलाया। उसने कहा, “मैं आपको ढूंढने ही यहां आई थी। मैंने लैंसडॉन में आपको ढूंढने की काफी कोशिश की, लेकिन उनका कहना था कि वीणा नाम की कोई औरत वहीं रहती ही नहीं थी।”
सुहाना के इतना कहते ही वीणा मुस्कुरा दी। उसने कहा, “क्योंकि कोई इस नाम को नहीं जानता था। सिवाय, तुम्हारे दादा जी के। उन्होंने ही मेरा नाम वीणा रखा था।” वीणा के इतना कहते ही सुहाना चौंक गई। वीणा ने सुहाना की सवालों से भरी आंखें देखते हुए कहा, “जहां, तक मेरा अंदाज़ा है, तुम कई सवाल अपने मन में लेकर आई हो।” सुहाना ने हां में सिर हिलाया। फिर वीणा ने सुहाना और पूजा की ओर देखते हुए कहा, “चाय पियोगे?”
कुछ देर बाद, कमरे में प्यून तीन कप चाय लेकर आया। चाय का प्याला हाथ में उठाते हुए वीणा ने कहा, तुम्हारे दादा जी और मैं एक-दूसरे को स्कूल के दिनों से जानते थे। हम अच्छे दोस्त थे। एक-दूसरे को पसंद भी करते थे, लेकिन उस समय दिल की बात को जुबां पर ला पाना इतना आसान नहीं हुआ करता था। स्कूल खत्म होने के बाद तुम्हारे दादा जी फौज में भर्ती हो गए। उनकी पोस्टिंग का दिन आ गया था और जिस दिन वो पोस्टिंग के लिए निकले, उससे ठीक एक श्याम पहले वो मुझसे मिलने आए। मैं स्कूल के बाद शिक्षकों के साथ सहायक के तौर पर काम करने लगी थी। तुम्हारे दादा जी ने कहा, “सुहाना!”
इतना कहते ही सुहाना ने वीणा की ओर देखा। वीणा ने कहा, “हां, मेरा नाम सुहाना है।” फिर वो मुस्कुरा दी और इसके साथ ही सुहाना भी मुस्कुरा दी। वीणा ने आगे बात बढ़ाते हुए कहा, “सुहाना, मुझे शायद तुम्हें ये कहने की ज़रूरत नहीं कि मैं तुम्हें पसंद करता हूं। शायद तुम ये जानती हो और कहीं न कहीं मैं भी यह महसूस करता हूं कि तुम भी मुझे पसंद करती हो। मैं नहीं जानता कि हमारी किस्मत क्या होगी, लेकिन क्या हम तब तक उस राह में साथ चल सकते हैं, जब तक वो रास्ता दो हिस्सों में नहीं बंटता।”
तुम्हारे दादा जी की ये बात सुनकर मैं हैरान रह गई। मुझे कुछ समझ नहीं आया। वो जान गए थे कि उनकी बात मुझे समझ नहीं आई। उन्होंने कहा, “सुहाना, साथ रहने का वादा करके मैं तुम्हें किसी बंधन में नहीं बांधना चाहता, क्योंकि प्यार बंधन में बांधने का नाम नहीं। मैं चाहता हूं कि तुम आज़ाद पंछी की तरह आसमान में उड़ो। बस जब तक किस्मत हमारी ज़िंदगी को एक-दूजे से जोड़े रखती है। तब तक तुम्हारे साथ हर पल का हिस्सा बनकर रहना चाहता हूं।” उनकी बात को समझने के बाद मैंने भी हां कर दी और फिर दोनों ने एक-दूजे से खत लिखने का वादा किया। उस समय अगर मेरे नाम पर खत आता, तो कयामत आती। आज के समय की तरह उस समय मोबाइल, जो नहीं था। और अच्छा हुआ नहीं था। उनके ख़त के इंतज़ार की उस मीठी तड़प को मैं आज भी महसूस कर सकती हूं।
हमारे बीच के इस अनोखे और निश्छल प्रेम की खबर किसी को न लगे। इसलिए, तुम्हारे दादा ने मेरा नाम वीणा रख दिया। हमारा एक दोस्त हुआ करता था, रघुवीर। वो डाकघर में ही काम करता था और इसलिए, तुम्हारे दादा जी के सारे खत मुझे मिल जाते थे, क्योंकि वो सब जानता था। इतना कहते ही वीणा की आंखों में सफेद मोतियों जैसी दो बूंदें छलक पड़ी और कुछ ऐसा ही नज़ारा सुहाना और पूजा की आंखों में भी था।
सुहाना ने कहा, “आपने अपने आखिरी ख़त में शादी की बात लिखी थी। जब आप और दादा जी एक-दूसरे से इतना प्यार करते थे, तो फिर शादी क्यों नहीं की?” वीणा थोड़ा मुस्कुराई फिर अपने आंसुओं को पोंछते हुए उसने कहा, “उस ज़माने में नौकरी से ज़्यादा महत्व जात-पात को दिया जाता था। मैं पंडित थी और तुम्हारे दादा जी क्षत्रिय। हम दोनों का मिलन असंभव था और इसीलिए, हमने किस्मत के भरोसे चलना मंज़ूर किया। हां, आखिरी ख़त मैंने उम्मीद के साथ लिखा, लेकिन तुम्हारे दादा जी हमारे मिलन के अंजाम को बेहतर जानते थे और मैं उनके कंधों पर रखी जिम्मेदारी को। इसलिए, उन्होंने जो सही समझा वो किया।” वीणा के इतना कहते ही सुहाना तपाक से बोली, “क्या किया?”
तुम्हारे दादा जी ने मुझे मेरे खत का जवाब दो लाइनों में दिया। उन्होंने अपनी एक माह की तनख्वाह मेरे नाम लिखते हुए कहा, “वीणा, खुले आसमान में आज़ाद पंछी सी उड़ना और अपने सपने पूरे करना।” बस उनकी बदौलत आज में यहां हूं। इसीलिए, मैंने शादी न करने का फैसला लिया और अपना नाम उनके नाम के साथ जोड़ लिया।
सुहाना ने कहा, “क्या उसके बाद, आपकी दादा जी से कभी मुलाकात नहीं हुई?” सुहाना के इतना कहते ही वीणा ने अपनी नज़र हल्के से नीचे झुकाकर और फिर उसकी ओर देखते हुए कहा, “नहीं। हम कभी नहीं मिले। मिलते, तो शायद जिंदगी कुछ और होती, लेकिन किस्मत में मिलना नहीं था। इसलिए, नहीं मिले।”
सुहाना ने कहा, “आपने अपनी सारी ज़िंदगी एक ऐसे इंसान के नाम करके गुज़ार दी, जिससे मिलना आपकी किस्मत में नहीं था। क्यों?” वीणा ने मुस्कुराते हुए कहा, “क्योंकि, कभी-कभी इश्क का मुकम्मल न होना भी इश्क होता है। धूप-छांव का अपना एक अलग रिश्ता है, लेकिन मिलना तो उनकी किस्मत भी नहीं। मैं उनके नाम को अपने नाम के साथ जोड़कर भी बेहद खुश हूं और इस जन्म न सही, क्या पता अगले जन्म उन्हें हासिल कर लूं। तुम्हारा नाम जानकर ही मुझे इतना इत्मिनान हो गया कि मैं उनके ज़हन में हमेशा शामिल थी, सुहाना।”